- शकील अख्तर
आज लेखक संगठन निष्क्रिय तो हैं, मगर उससे ज्यादा खतरनाक बात यह है कि जनवाद के नाम चल रहे लेखक संगठन के अध्यक्ष पूरी तरह संप्रदायवाद, प्रतिक्रियावाद के साथ हैं। फिल्म को आए हुए एक महीने से ज्यादा का समय हो गया। देश की जनता को चाहे जितना नफरत का नशा कराया जाए मगर अभी भी उसमें इतना विवेक, गांधी प्रेम है।
गांधी को छोटा दिखाना इतना बुरा नहीं था जितना उन्हें गोडसे के बराबर दिखाना। अभी तक दक्षिणपंथी गांधी वध कहकर उनकी हत्या को जस्टिफाई करते रहे। क्या कारण था पूछकर, कहकर हत्यारे के समर्थन का माहौल बनाते रहे। मगर यह पहली बार है कि गांधी-गोडसे को बराबर खड़ा करके एक फिल्म बना दी गई है जिसका नाम ही है कि-दोनों में युद्ध! और इसमें सबसे बुरा यह है कि इसे लिखा जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष ने।
यह अध्यक्ष हैं प्रसिद्ध हिन्दी लेखक असगर वजाहत। फिल्म का पूरा नाम है- 'गांधी-गोडसे : एक युद्ध'! फिल्म का नाम ही अपने आपमें स्पष्ट है कि इसकी थीम क्या है? विचार क्या है? अगर फिर भी कुछ भ्रम हो तो फैक्ट यह है कि फिल्म मध्यप्रदेश सरकार के वित्तीय सहयोग से बनाई गई है। उसी मध्यप्रदेश में जहां गांधी को गाली देने वाले कालीचरण महाराज छुपे हुए थे। और छत्तीसगढ़ पुलिस को मध्यप्रदेश आकर उनकी गिरफ्तारी करना पड़ी थी। जिस पर मध्यप्रदेश सरकार ने आपत्ति की थी और जमानत होने के बाद मध्यप्रदेश के सबसे बड़े शहर इन्दौर में उनका जबर्दस्त स्वागत जुलूस निकाला गया। जिसमें खुली गाड़ी में सवार कालीचरण थे और नंगी तलवारें लहराते हुए गांधी के खिलाफ नारे लग रहे थे। इस पीछे की कहानी के बाद और क्या बताने की जरूरत है? और अगर जरूरत है तो यह भी सुन लीजिए कि पिछले कई सालों से हर साल गांधीजी की पुण्यतिथि पर ग्वालियर में हिन्दू महासभा गांधी को गोली मारने के दृश्य की पुर्नप्रस्तुति करती है। गांधी के पुतला बनाकर बाकायदा फिर गोली मारी जाती है। और गोडसे की जय जयकार तो होती ही है। मगर किसी गिरफ्तारी का तो सवाल ही नहीं। अगर पुलिस गलती से चली जाए तो उसे डांट कर भगा दिया जाता है। तो मध्यप्रदेश सरकार कैसी और किस फिल्म को अनुदान देगी यह स्पष्ट है। विरोध किसका करेगी यह भी।
मगर सवाल मध्यप्रदेश सरकार का भी नहीं है। फिल्म का भी नहीं है। उसे बनाने वाले राजकुमार संतोषी का भी नहीं है। लेखक का भी नहीं है। गांधी के खिलाफ लिखने वाले बहुत हैं। सवाल एक बड़े लेखक संगठन का है जो अपने घोषणा पत्र में कहता है कि वह ऐसे लेखकों का संगठन है जो शांति का पक्षधर है। सांप्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद का विरोधी है। लेकिन इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि इसका अध्यक्ष ही हत्या के कारण खोज रहा है और जिस अंधराष्ट्रवाद सांप्रदायिक नफरत की वजह से गांधी को मारा गया था उसका विश्लेषण यह कहकर कर रहा है कि हत्यारे की मानसिकता को समझना जरूरी है। सांप्रदायिकता और अंधराष्ट्रवाद खुद कारण हैं जो नफरत फैलाते हैं।
जिससे हत्यारे की मानसिकता बनी थी। मगर उसे अलग से बताने की कोशिश वैसी ही है जैसे हमारे यहां अखबारों में औरत की हत्या के कारण बताए जाते हैं। किसी दिन का भी अख़बार उठाकर देख लीजिए लिखा होगा कि पति को शक था, लड़कियों के लिए हत्या, तेजाब फेंकने जैसे वीभत्स अपराध के लिए लिखा होगा कि किसी से फोन पर बात करने पर नाराज लड़के ने कर दिया। हर तरह से महिला खुद कारण थी ऐसा एंगल दिया होगा। कई बार तो पुलिस भी ऐसा कहती है। मगर ज्यादातर रिपोर्टर और फिर डेस्क (संपादक वगैरह) खुद ही पुरुष को बचाना, उसके पक्ष में माहौल बनाना अपना फर्ज समझते हैं।
लेखक संघ कभी हमारे यहां बहुत प्रगतिशील भूमिका निभाते थे। प्रगतिशील लेखक संघ ( प्रलेस) का बहुत गौरवशाली इतिहास रहा है। इसका पहला अधिवेशन प्रेमचंद की अध्यक्षता में हुआ था। 1936 में। आजादी के आंदोलन में इसकी बड़ी भूमिका रही थी। बाद में भी देश में प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना में इसका बड़ा योगदान है। 1982 में इसी से टूटकर जनवादी लेखक संघ बना था। जिसके साथ बड़े-बड़े लेखकों के नाम जुड़े रहे हैं। जिनमें राजेन्द्र यादव प्रमुख हैं। जो अपने वैचारिक दृष्टिकोण को लेकर संघ परिवार के हमेशा निशाने पर रहे। यहां तक कि हरिशंकर परसाई जो प्रलेस में बहुत सक्रिय थे की तरह उन पर भी शारीरिक हमले हुए।
लेकिन आज लेखक संगठन निष्क्रिय तो हैं, मगर उससे ज्यादा खतरनाक बात यह है कि जनवाद के नाम चल रहे लेखक संगठन के अध्यक्ष पूरी तरह संप्रदायवाद, प्रतिक्रियावाद के साथ हैं। फिल्म को आए हुए एक महीने से ज्यादा का समय हो गया। देश की जनता को चाहे जितना नफरत का नशा कराया जाए मगर अभी भी उसमें इतना विवेक, गांधी प्रेम है कि वह गांधी गोडसे युद्ध का नाम सुनकर ही फिल्म देखने नहीं गई। फिल्म पिट गई। साहित्यिक क्षेत्रों में फिल्म की और सही बात तो यह है कि फिल्म की तो कम फिल्म के लेखक असगर वजाहत की ज्यादा आलोचना की गई। मगर आश्चर्य यह कि जनवादी लेखक संघ का कोई बयान देखने में नहीं आया। जबकि वह कहता है कि वह मार्क्स और आंबेडकर के विचारों पर चलने वाला वैज्ञानिक दृष्टिकोण का जनता के विचारों को ऊपर उठाने वाला संगठन है। जनवादी लेखक संघ की चुप्पी आश्चर्यजनक और दुखद है।
लेकिन लेखक चुप नहीं है। वह उल्टे आरोप लगा रहा है कि उनकी फिल्म का सुनियोजित विरोध हो रहा है। अब कोई बताए कि फिल्मों का सुनियोजित विरोध करने वाला तो देश में एक ही संगठन है और वह तो गोडसे को गांधी के बराबर खड़ा करने वाली इस फिल्म का विरोध करेगा नहीं। कर नहीं रहा। फिर कौन है। थोड़ी सी ताकत लेफ्ट में है। संगठन के स्तर पर विरोध करने की। मगर वह तो खुद लेफ्ट के लेखक संगठन के अध्यक्ष हैं तो लेफ्ट कैसे करेगा? कहां कर रहा है? कुछ लेखकों, दो-चार पत्रकारों के अलावा किसी ने किया? विरोध का समय ही नहीं है। सब डरे हुए हैं। विरोध से ज्यादा तो उन्हें समर्थन मिल रहा है। कुछ लिखकर समर्थन कर रहे हैं तो ज्यादातर मौन रहकर। समर्थन करने वाले भी उनके पक्ष में लिखने से ज्यादा उन्हें गाली ज्यादा दे रहे हैं जिन्होंने फिल्म पर सवाल उठाए हैं।
जवाब तो सवालों के मिलने चाहिए मगर खुद लेखक यह कहकर सारे सवालों से बरी हो जाता है कि यह आभासी इतिहास है। गजब- गांधी के बारे में जिन्हें इतनी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है, गाली और घृणा का उन्हें काल्पनिक चरित्र कैसे बनाया जा सकता है? क्या और ज्यादा घृणास्पद अभियान चलाने के लिए?
असगर वजाहत ने अपनी सफाई दी है। उसमें वे कहते हैं कि 'गांधी भी मनुष्य थे और गोडसे भी मनुष्य थे।' इसका क्या मतलब है? सिवाय इसके कि दोनों को बराबर खड़ा करना। दूसरी बात वे कहते हैं कि दो हिन्दुत्व हैं। एक गांधी का एक गोडसे का! इसका मतलब और खतरनाक है। वैचारिक स्तर पर दोनों को एक धरातल पर खड़ा कर देने का।
लेखक में विचलन खास बात नहीं है। इन 9 सालों में और भी लेखक जो खुद को प्रगतिशील, जनवादी कहते थे जनविरोधी हो गए। दक्षिणपंथ की तरफ खिसक गए। सरकारी संस्थानों में जगह ले ली। मगर किसी संगठन का यूं किंकर्तव्यविमुढ़ होना बहुत तकलीफदेह है।
जनवादी लेखक संगठन चुप्पी के पीछे नहीं छुप सकता। या तो उसे अपने अध्यक्ष को बर्खास्त करना होगा या अपने जनवाद की विश्वसनीयता को हमेशा के लिए खोना होगा। मौन स्वीकृति चिन्हम बनता जा रहा है!